ये उन दिनों की बात है जब ब्रिटिश हमारे देश में कारोबारी बन कर आये और कूटनीतिक षड्यंत्र कर एक के बाद एक रियासतों को अपना गुलाम बनाने लगे। कंपनी के नुमाइंदों ने इसके लिये रियासतों के भीतर से इसी देश के उन गद्दारों का सहारा लिया जो साम, दाम, दंड या भेद किसी भी वजह से उनके साथ हो लिये। आज का ये दौर न देखा होता तो यक़ीन करना मुश्किल होता कि कंपनी सरकार अपना प्रभुत्व जमाने के लिये हर दौर में गद्दारों का ही सहारा लेती है, देशभक्तों का उससे दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं।
कंपनी सरकार ने भारत की विकेंद्रीकृत सत्ता की प्रतीक अधिकांश रियासतों पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष नियंत्रण के लिये भारतीय सैनिकों की ही मदद ली। तब न तो चुनाव आयोग जैसी संस्था होती थी और न ही जनता को राजा चुनने का लोकतांत्रिक अधिकार हासिल था। क़ानून तब भी हुकूमत और उसके रहनुमाओं की सुविधा को ध्यान में रख कर ही बनाये जाते थे। एकजुट विरोध और देशव्यापी विकल्प की हीनता से विजेता बनी कंपनी सरकार के अहंकार ने जिस सैनिक विद्रोह की नींव रखी उसकी वजह से देश की सत्ता बाद में उस ब्रिटिश हुकूमत को हस्तांतरित हुई जिसके राज में सूरज कभी नहीं डूबता था। वैसे ही जैसे आजकल सब कुछ मुमकिन है।
ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने इस दौरान भारत में सड़कों, रेलवे ट्रैक और बंदरगाहों का बहुत विकास किया ताकि उसकी आड़ में इस देश की अकूत मानवीय और प्राकृतिक संपदा का जमकर दोहन हो सके। इसका इतना असर हुआ कि आज़ादी के बाद भी देश का एक बड़ा तबका देश वासियों के शरीर और आत्मा पर पड़े गुलामी के निशानों को अनदेखा कर विदेशी हुकूमत के इस विकास का मुरीद बना रहा।
हमारी रगों में रेंग रहे गुलामी के परजीवी कीड़े आज भी निजीकरण के विकास को उसी मनोहारी अंदाज़ से निहार रहे हैं। कंपनी सरकार में साजिशों से लेकर सब कुछ उसी अंदाज़ में चल रहा है। बस एक अंतर है कि गांधीवाद अब अपनी कायरता को छिपाने का साधन है और भगत सिंह की तस्वीर सांप्रदायिक उग्रता को इन्कलाब के बसंती चोले में ढक कर उसे वैध बना देने का माध्यम। कुटिलता सहज हास्य का रूप से चुकी है और निर्लज्जता बन गयी है वीरता का पर्याय।
देश की गुलामी का लंबा, संघर्षपूर्ण और खूनी इतिहास एक बार फिर राष्ट्रवाद की शुगर कोटेड गोली के भीतर छिप कर खुद को दोहराने के लिये आतुर है। कंपनी सरकार की यही तो ख़ासियत है कि वो भूत, वर्तमान या भविष्य में जब भी सत्ता हड़पती है उसके चाहने वाले राय बहादुरों की तादाद किसी भी दौर में कम नहीं होती। गद्दारों की मदद से बनी ऐसी हुकूमत का विरोध करने वाला हर दौर में देशद्रोही ही कहलाता है।
बस एक बात को लेकर मैं बहुत आशावादी हूँ और वो ये कि सुना है कंपनी सरकार ने जिन गद्दारों से अपना हित साधा उन्हें बाद में ये कह कर धिक्कारा भी कि जो अपने देश का नहीं हुआ वो हमारा क्या होगा। कुछ लोग इसमें कंपनी सरकार का चरित्र ढूंढते हैं लेकिन मैं इसे उसकी कुटिलता (यूज एंड थ्रो पॉलिसी) मानता हूँ। मुझे आज भी गद्दारों को लेकर कंपनी सरकार की इस कुटिलता पर पूरा भरोसा है।