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सात साल पहले एक बन्दी मिली थी, हट्टी कट्टी सी,

अब तक याद आती है

जब जब याद आती है, एक आह सी निकल जाती है

उसकी शोख अदाओं ने जी भर कर लूटा

विकास से तो जैसे नाता ही टूटा

भाइयो और बहिनों ने विश्वास किया था जिस फ़क़ीर पर

बोले थे जिसने सौ जुमले बन्दी की तक़दीर पर

लेकिन झूठ से उसके तो रिश्ते पुराने निकले

चंद धन्ना सेठ और सत्ता खोर उस बन्दी के दीवाने निकले

माना कि दिल दुखा था इस आघात से

पर सूकून था तो बस एक बात से

कि इस बन्दी में कोई न कोई तो बात होगी

मज़ा आएगा जब इसकी अब्दुल से मुलाक़ात होगी

फ़क़ीर की झाड़ फूँक किसी मास्टर स्ट्रोक से कम नहीं

बन्दी ना मिले इस बात का कोई ग़म नहीं, लेकिन

सात साल बाद भी बदला नहीं मंज़र है

घुसा है बराबर सबके जो बन्दी के नाम का खंजर है

इसीलिए सात साल बाद भी वो बन्दी याद आती है

और जब जब याद आती है एक आह सी निकल जाती है।

@भूपेश पन्त

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