देश में चोर और चौकीदार को लेकर काफी समय से बहुत कुछ बोला जा रहा है। एक तरह से चोर को चौकीदार का पर्याय बना दिया गया है। कई लोगों ने इस बात पर सवाल उठाये हैं कि इससे निश्चित रूप से चौकीदार शब्द का मान मर्दन हुआ है। कुछ लोगों ने तो इसे उल्टा चोर कोतवाल को डांटे जैसी स्थिति भी बताया है। लेकिन मेरा मुद्दा ये नहीं है। चौकीदार तो कभी कभी मजबूरी में चोरी भी कर सकता है लेकिन चोर कभी भी अपने मार्ग से नहीं भटक सकता। वो अपने सिद्धांत पर अडिग रहता है। मुझे उन चोरों के सम्मान की चिंता है जिन्हें किसी खास राजनीतिक दल से जोड़ा जा रहा है। मुझे इस बात की भी हैरानी है कि अब तक किसी भी चोर ने इस अपमान पर अपनी आपत्ति दर्ज नहीं करायी है। मुझे लगता है कि चोरों को अपने सर्वदलीय स्वरूप के साथ हो रहे खिलवाड़ को लेकर जंतर मंतर पर प्रदर्शन के लिये बैठ जाना चाहिये। उन्हें भी आखिर इस लोकतंत्र में अपने अधिकारों की चौकीदारी करने का हक़ है।
चोर शब्द को हमेशा ही नकारात्मक रूप से देखा जाता रहा है। मुझे इस बात पर भी घोर आपत्ति है। चोरों के ऊपर इतनी कहावतें बनी हैं जितनी चौकीदार पर भी नहीं बनीं। पूरा नैरेटिव ऐसा बना दिया गया है कि पूछो मत। यही वजह है कि दिल चुराने जैसी हसीन ख़ता करने वालों को कई बार अपनी जान गंवानी पड़ जाती है और जो बच जाते हैं उन्हें उम्रकैद काटनी पड़ती है। कामचोरों को शक़ की नज़र से देखा जाता है। कहा जाता है कि दोस्त जब आपसे आँखें चुराने लगे तो समझ लो कि उसके मन में चोर है। अच्छे भले क्लीन शेव चोर की भी दाढ़ी में तिनका ढूंढने की कोशिश की जाती है। भले ही दाढ़ी फोटोशॉप से बनानी पड़े। अरे चोरों से ज़्यादा दाढ़ी वाले तो राजनीति में हैं तो क्या सारे दाढ़ी वाले चोर हैं?
मेरा मानना है कि चोरी से नफ़रत भले ही कर लो लेकिन चोरों से करोगे तो एक दिन अपने चित चोर को भी पकड़ कर पीट दोगे। आम तौर पर चोर अपने काम को पूरे सन्नाटे में ही अंजाम देते हैं। लेकिन एक अनुभवी चोर ही शोर मचा कर भीड़ को दिग्भ्रमित कर सकता है। मुझे लगता है कि इससे चोरों के अनुभव को सम्मान मिलता है और देश की राजनीति को इसका लाभ लेने में कदापि पीछे नहीं रहना चाहिए। ऐसा नहीं है कि चोरों को खुद चोरी का डर नहीं रहता। उनका भी ऐसे चोरों से पाला पड़ ही जाता है जो उनकी तुलना में मोर यानी बड़े चोर होते हैं। इसे ही चोर पर मोर पड़ना कहते हैं। चोरों में सत्ता का ये हस्तांतरण उनकी आंतरिक लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा है और मेरा मानना है कि जो लोकतंत्र को मानता है वो चोरों को भी मानता है।
चोरों के लिये न तो कोई धर्म अहम होता है और न जाति। वो अगर राजनीति से प्रभावित न हों तो गरीबों का ध्यान रखते हैं। चोर अक्सर अर्थव्यवस्था के इर्द गिर्द घूमते हैं और केवल चौर्य धर्म का पालन करते हैं। इसी में उनका शौर्य छिपा होता है जो हर देश काल और परिस्थिति में उनकी सत्ता कायम रखता है। मैंने कहीं देखा है कि भागते वक्त अगर राष्ट्रगान बज रहा हो तो चोर रुक जाते हैं और पुलिस वाले दौड़ कर उन्हें पकड़ लेते हैं। वो चाहते तो इस दौरान विदेश भी भाग सकते थे। इससे साबित होता है कि चोरों से बड़ा राष्ट्रवादी और समाजवादी कोई नहीं। जब तक हिंसा का प्रयोग न हो आप उन्हें गांधीवादी भी मान सकते हो। चोरों में आपसी भाईचारा इतना ज्यादा होता है कि वो हमेशा एक दूसरे के मौसेरे भाई होते हैं। वक़्त पड़ने पर वो एक दूसरे को जेल जाने से भी बचा लेते हैं। इस भावना से पूरे देश को बहुत जल्द भाईचारे के एक सूत्र में पिरोया जा सकता है जिसकी आज बहुत ज़रूरत है।
मेरा मानना है कि चोरों को बीच कितने ही मधुर संबंध हों लेकिन वो अपने पदानुक्रम का पूरा सम्मान करते हैं। इसी लिये चोरों के पीर को उठाईगीर की पदवी दी जाती है जो पूरे गिरोह को बचाने की ज़िम्मेदारी उठाता है। एक चोर अपने काम को लेकर इतना समर्पित होता है कि वो भले ही चोरी छोड़ दे लेकिन हेराफेरी की आदत कभी नहीं छोड़ पाता। बड़े बड़े चोर इसी कर्मठता के कारण उससे मार्गदर्शन लेने आते हैं। सच कहूं तो चोर और चौकीदार की इस बहस में मुझे चोर ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया है और आपको भी इसे लेकर अपने मन में कोई चोर यानी संदेह नहीं रखना चाहिये। लोकतंत्र के लुटेरों और सियासत के ठगों को इतने सालों से देखने के बाद तो चोरों के लिये मेरा सिर मीडिया की तरह ही श्रद्धा से झुक गया है। हरामखोरों को चोर कहने से उनके सम्मान में जो गिरावट आयी है उसके लिये मैं इतना शर्मिंदा हूँ कि इस बार चुनाव में मैं उसे ही वोट दूंगा जिसे वो कहेंगे।
@भूपेश पन्त