• Sat. Jul 27th, 2024

सटायर हिन्दी

विद्रूपताओं का आईना

बचपन में जब मैं छोटा था तो मेरे लिये देश पहले आता था। इतना कि मैं स्कूल की लाइन में भी अपने आगे देश के लिये जगह छोड़ कर रखता था लेकिन वो मुझे कभी दिखायी नहीं दिया। उन दिनों गज़ब का देशभक्त था मैं। मेरा लहू विदेशियों को देख कर खौल उठता और मैं खून का घूंट पी कर रह जाता। बाद में किसी ने बताया कि मज़हबी एकता और अहिंसा की बात करने वालों को विदेशी नहीं विद्रोही कहते हैं। विदेशी तो वो हैं जो सरकार में हैं और सरकार का विरोध करना राजद्रोह कहलाता है। कोई कोई सरकार वाला इसे राष्ट्रद्रोह भी कह लेता है, कहने में क्या जाता है। जवान हुआ तो देश की तलाश में एक ऐसे परिवार की शरण में जा पहुँचा जिसने मुझे बताया कि देश कहने में किसी वाद का अहसास नहीं होता जबकि राष्ट्र कहने में एक वाद का बोध होता है। देश सबका हो सकता है लेकिन राष्ट्र उसी का होता है जो उसे हथियाने की कोशिश में कामयाब होता है। मुझे राजनीति में राष्ट्रवाद की तिलिस्मी अहमियत समझायी गयी। इसलिये मैंने चुपचाप देश को सरका कर राष्ट्र को अपने आगे कर लिया।
नौजवान होने के साथ ही मुझ में राष्ट्र निर्माण का भूत सवार हुआ। मुझे अब राष्ट्र दिखायी देने लगा था। मज़हबी नफ़रत में और उन्मादी नारों में। मुझे राष्ट्र के निर्माण के लिये राजनीति में आने को मज़बूर होना पड़ा। इसके लिये मुझे स्वाभाविक रूप से वही पार्टी पसंद आयी जिसमें मेरे जाने पहचाने पारिवारिक चेहरे थे। हमारे परिवार के भी कई चेहरे थे। कोई सामाजिक और सांस्कृतिक प्रचार प्रसार में दक्ष तो कोई इससे उत्पन्न राष्ट्रवादी भावनाओं के दोहन में कुशल। इस तरह मेरे और राष्ट्र के बीच में पार्टी आकर खड़ी हो गयी। राष्ट्र निर्माण में मेरी भूमिका खत्म हो चुकी थी और अब मुझे केवल पार्टी को मज़बूत करना था। मैं रथ लेकर दो लोगों की पार्टी को राष्ट्र की सबसे बड़ी पार्टी बनाने के अभियान में जुट गया। मज़हबी उन्माद की सीढ़ी पर चढ़ कर मेरा विजय रथ साथियों के अटल सहयोग से सत्ता के करीब जा पहुँचा। पार्टी ने सरकार बनायी और मैं दो नंबर के पायदान पर खड़ा हो गया। मुझे लगा कि मैं अब पार्टी के प्रति अपनी भूमिका को भी सफलतापूर्वक निभा चुका हूँ।
पहले राष्ट्र और फिर पार्टी को मज़बूत करने के बाद मुझे विचार आया कि अब मुझे अपने बारे में भी सोच लेना चाहिये ताकि मेरा जीवन दर्शन पूर्णत: साकार हो सके। मैंने सोचा कि मैंने तो राजधर्म को परिभाषित कर अपना संकल्प पूरा किया। राष्ट्रवाद की पताका फहरा कर राष्ट्र को मज़बूत किया और फिर भावनाओं का दोहन कर पार्टी की नैया पार लगा दी। लेकिन अब वक्त इन दोनों से अपने लिये कुछ मांगने का है। मैं दूसरे पायदान पर ही क्यों रहूं जबकि मैं पहले पायदान पर खड़े होने के क़ाबिल हूं। मेरे भीतर मैं की आवाज़ प्रबल होने लगी थी कि पता नहीं कहां से अचानक मेरे ही पढ़ाये और कई बार पिटने से बचाये दो चेले मैं मैं करते हुए लाइन में मुझसे आगे आकर खड़े हो गये। इनमें से एक राष्ट्र बन गया और दूसरा पार्टी। जिस पार्टी को मैंने दो के आँकड़े से बहुमत के आँकड़े तक पहुँचाया था वो मेरी आँखों के सामने मेरे जीते जी आज फिर से दो लोगों की पार्टी बन गयी है।
दुनिया गोल होती है ये मुझे आज समझ में आ रहा है। जीवन भर दौड़ लगाने के बाद आज फिर वहीं आकर खड़ा हो गया हूँ जहाँ से चला था। मुझे आज लगता है कि मेरा जीवन दर्शन मेरे सामने सिर के बल खड़ा होकर ठहाके लगा रहा है। वो कह रहा है कि राजद्रोह को राष्ट्र द्रोह मान लिया होता और सबसे पहले अपने को मज़बूत किया होता तो आज सत्ता में काबिज होकर वही अट्टहास कर रहा होता जो मेरे चेले कर रहे हैं। राष्ट्र और पार्टी से दरकिनार कर दिये जाने के बाद अब मेरी मौजूदा हालत के लिये जिम्मेदार दो बड़ी गलतियों का यही क़बूलनामा है। गलती सुधारने के लिये उम्र के इस पड़ाव पर अब मुझसे इससे ज्यादा तो कुछ होने से रहा।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *