एक समय की बात है, एक बार एक बेहद धूर्त और चालाक सियार था। रामगढ़ के बीहड़ जंगल में सियारवाद फैलाने के मक़सद से वो सिंह की जगह जंगल का राजा बनना चाहता था। उसे लगता था कि राजा वही बन सकता है जो जंगल के बाकी जानवरों को डरा सके। उसे ये भी पता था कि सियार के रूप में कोई भी उसे जंगल का राजा स्वीकार नहीं करेगा। वो दिन रात इसी उधेड़बुन में रहता कि उसकी महत्वाकांक्षा कैसे पूरी हो और फिर एक विचित्र संयोग हुआ। एक रात जब मौसम ख़राब था और आसमान बादलों से घिरा हुआ था। ऐसे में सियार का रेडार भी ठीक से काम नहीं कर रहा था और वो भटक कर डाकू गब्बर सिंह के ठिकाने तक जा पहुँचा। अंधेरे में सियार को ठोकर लगी और वो पानी से भरे एक टब में जा गिरा। इस टब में गब्बर ने रामगढ़ के लोगों से होली खेलने के लिये भगवा रंग घोल रखा था। उसमें भीग कर वो अब भगवा सियार दिखायी दे रहा था।
सियार को जंगल में जानवरों के बीच पहुंचने से पहले ही इसका अहसास हो गया था कि इस नये रूप में कोई उसे पहचान ही नहीं पाएगा। तब तक जब तक कि वो अपनी ज़ुबान खोल कर हुआ हुआ न करने लगे। लेकिन ऐसा कैसे संभव था? अपनी बिरादरी वालों के बीच हुआ हुआ बोलेगा तो उन्हें भी पता लग जाएगा कि ये तो अपने में से ही कोई है जो उन्हें भी धोखा दे रहा है। सियार बुद्धि ने आख़िरकार इसका तोड़ भी खोज निकाला। उसने नया नारा ईजाद किया, नहीं हुआ… नहीं हुआ। इससे वो जंगल के राजा शेर पर अब तक कुछ न करने का आरोप भी लगा सकता था और अपने सियारवाद को भी सुरक्षित कर सकता था। वो अपने रंगरूप से जानवरों को डरा भी सकता था और जंगल का राजा भी बन सकता था। आने वाले दिनों की कल्पना मात्र से उसका सियारपना बांछों की तरह खिल चुका था।
भगवा सियार ने अगले ही दिन अपनी बिरादरी के लोगों को साथ लिया और.. नहीं हुआ.. नहीं हुआ के नारे लगाते शेर की गुफा को घेर लिया। जंगल के सभी जानवर सियार जैसे दिखने वाले भगवा रंग में रंगे महाजानवर को देख कर हैरान थे। उसके रंगरूप और नारों ने उन पर अजीब सा असर किया। कुछ डरे हुए थे तो कुछ रोमांचित। जानवरों ने बदलाव का साथ देते हुए उस नये तरह के जानवर को एक बार जंगल की सत्ता सौंपने का फैसला किया। अब जंगल में सियार का राज था और दूसरे जानवरों की जूठन खाने की बजाय उसे स्वादिष्ट पकवान मिलने लगे। वो पूरे जंगल में कहीं भी बेरोकटोक घूम सकता था। जंगल की धन संपदा और संसाधनों पर उसका एकाधिकार था। बिरादरी के बाकी सियार सच से अनजान थे लेकिन सत्ता का सुख उन्हें भी रास आने लगा था। कुछ ने मौके का फायदा उठा कर राजा से करीबी बना ली और उसी की तरह मजे लूटने लगे। कुछ नहीं हुआ का जयघोष पूरे जंगल में गूंज रहा था।
वक्त बीतता गया और भगवा सियार ने जंगल पर अपनी पूरी सत्ता कायम कर ली। जानवर अब उससे ख़ौफ़ खाने लगे थे। जो भी राजा से सवाल पूछने की हिम्मत करता उसे बिरादरी के दूसरे सियार ऐसा पहले भी हुआ, तब तू क्यों नहीं हुआ, कब हुआ, क्यों हुआ जैसे सवालों की बौछार से चुप करा देते। सियार राजा की तानाशाही बढ़ती जा रही थी और जानवरों का एक समूह अब उसकी मूर्खतापूर्ण हरकतों और झूठे दावों से खिन्न होने लगा था। कई बार उन्हें महाजानवर के बकरी होने का संदेह होता जब वो बोलता कि मैं ग़रीब हुआ, मैं पिछड़ा हुआ, मैं.. मैं..। सियार के विरोधी जानवरों ने अब उस पर नज़र रखनी शुरू कर दी। उधर सियार के बदन से भगवा रंग फीका पड़ने लगा था। सच सामने न आ जाए ये भांप कर वो कुछ दिन से गुफा से बाहर भी नहीं निकला था लेकिन ऐसा कब तक चलेगा। उस रात सियार ने फिर से गब्बर के रखे रंग वाले ड्रम में नहा कर आने की सोच ली थी। लेकिन अँधेरे में रेडार की ख़राबी के कारण सियार उस ड्रम में कूद गया जिसमें साफ पानी रखा था। सियार का सारा भगवा रंग पानी में घुल गया और अब वो वही नज़र आने लगा जो कि वो था। गब्बर दूर से ये सब कारनामे देख रहा था। सियार झल्लाया, अरे ये क्या हुआ? क्यों हुआ? कैसे हुआ? गब्बर ने खैनी की चुटकी ली, अब हुआ सो हुआ। तू सियार ही तो हुआ।
पोल खुलने का डर और जंगल का राजपाट हाथ से जाता देख सियार के हाथ पांव फूल गये। लेकिन उसका सियारपन भी गज़ब का था। गुफा से बाहर निकले बिना उसने सुबह ही जंगल में सियारवाद स्थापित करने की मुनादी करवा दी। राजा ने आदेश जारी कर कहा कि जंगल के हित में सभी जानवर खुद को सियार मानेंगे और सियारवाद के प्रतीक के तौर पर वो भी खुद सियार के रूप में प्रकट होंगे। सियार के समर्थकों ने इसे बदलाव की विशेष योजना जान कर हाथों हाथ लिया। हिरण, नीलगाय, खरगोश, लोमड़ी, सांप, बिच्छू भी खुद को सियार बतलाने लगे। मैं भी सियार हुआ का नारा जंगल में आग की तरह फैल गया और सियार रंग उतरने के बावजूद राजा बना रहा। जंगल अब सुरक्षित राजा के सुरक्षित हाथों में था। रंगा सियार के जंगल राज में हुआ हुआ की आवाज़ आज भी सुनी जा सकती है।
@भूपेश पन्त