• Thu. Oct 3rd, 2024

सटायर हिन्दी

विद्रूपताओं का आईना

लोकतंत्र की उड़ान!

Byआज़ाद

Jun 9, 2020

एक बार की बात है, दो बगुले थे। आप चाहो तो उन्हें बगुला भगत भी कह सकते हो। उड़ते उड़ते दोनों अपनी प्यास बुझाने एक सरोवर के तट पर उतरे। पानी पीने के साथ ही लगे हाथ राम नाम की माला जपते हुए दोनों ने कुछ मछलियाँ भी गटक लीं। दोनों को अपनी उड़ान का अहंकार था जिसने उनकी उद्दंडता को भी काफी बढ़ा दिया था।

इससे पहले कि दोनों आगे के सफ़र की शुरुआत करते उन्हें कछुए रूपी लोकतंत्र के दर्शन हुए। वो कछुआ अपनी पीठ पर सत्तर साल का बोझ लिये आम आदमी की तरह सरक सरक कर उन्हीं की तरफ़ आ रहा था। बगुला भगतों ने कछुए को देख कर एक दूसरे को बेहद गोपनीय अंदाज़ में देखा। दोनों जैसे तय कर चुके थे कि आगे उन्हें क्या करना है।

कछुआ रूपी लोकतंत्र जब तक बगुला भगतों के पास पहुँचा तब तक दोनों ने कंठी माला हाथ में लेकर रामनामी दुपट्टा ओढ़ लिया था। दो संन्यासियों को सामने देख कर कछुआ अभिभूत होकर दंडवत हो गया। बगुलों ने लोकतंत्र को नयी ऊँचाइयां छूने का आशीर्वाद दिया। ये सुन कर कछुआ भारी मन से अपनी भारी देह को देख उदास हो उठा। कछुए की खिन्नता को भाँप कर बगुलों ने उससे इस निराशा का कारण पूछा।

तब कछुए ने बगुला भगतों से कहा कि भले ही वो एक बलशाली लोकतंत्र है लेकिन अपनी मर्यादा और दैहिक सीमाओं को अच्छी तरह जानता है। उसके लिये विचारों की उड़ान आसान है लेकिन आकाश की ऊँचाइयां छू पाना उसके बस की बात नहीं। कछुए ने विनती की कि इसलिए उसे तो बस इस बोझ को उठाने की ताक़त और चिरंजीवी होने का आशीर्वाद ही दे दें।

बगुले ये सुन कर कुटिलता से मुस्कुराये और कछुए पर तरस खाते हुए बोले कि तुम्हारी ये हालत पिछले सत्तर सालों में हुए तुम्हारे अनियोजित शारीरिक विकास की देन है। अगर तुमने अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का सही इस्तेमाल करते हुए पंखों को उगाने की कोशिश की होती तो आज तुम हमारे साथ आसमान में किसी विहग की तरह विचरण कर रहे होते।

इतना बोल कर बगुलों ने लोकतंत्र को सांत्वना देते हुए समझाया कि अब भी कुछ नहीं बिगड़ा क्योंकि वो अब उनकी शरण में आया है। उन्होंने भरोसा दिलाया कि तुम पंख विहीन हो तो क्या हुआ, हम तुम्हें अर्थव्यवस्था के डंडे की मदद से ऊँचाई तक ले जाएंगे। जब तुम हमारे पंखों के सहारे आसमान से नीचे देखोगे तो तुम्हें खुद के विश्वगुरु होने का आभास होगा।

कछुए ने बगुला भगतों की ओर हैरानी से देखा और गर्दन उचका कर कुछ सुनने की कोशिश करने लगा। उसे अच्छे दिनों की आहट सुनायी देने लगी थी। बगुलों ने एक बार फिर उसका संदेह मिटाने की कोशिश करते हुए दावा किया कि लोकतंत्र की ये उड़ान न भूतो न भविष्यति साबित होगी। कछुआ मान गया क्योंकि वो कभी सरोवर तो कभी सूखी ज़मीन पर घूम घूम कर उकता गया था। उसे बदलाव की ज़रूरत और तेज़ी से महसूस होने लगी।

कछुए को उड़ान के लिये तैयार देख दोनों बगुलों ने अपनी अपनी चोंच से अर्थव्यवस्था की डंडी के दोनों सिरे पकड़े और कछुए से उसे मुँह से पकड़ कर लटकने को कहा। इससे पहले बगुलों ने उसे किसी भी हाल में मुँह न खोलने की हिदायत दी। लोकतंत्र ने हामी भरी और डंडे पर लटक गया। बगुला भगतों ने अपनी योजना में कामयाबी की परवाज़ भरी और लोकतंत्र को ले उड़े। अब कछुआ उनके अहंकार के आसमान पर राम भरोसे था।

कछुए के मन में उड़ान का रोमांच तो था लेकिन मुँह न खोलने की बेबसी उसे पहले की तरह अपने आनंद की सस्वर अभिव्यक्ति से वंचित कर रही थी। ज़मीन से ऊपर उठते ही कछुए को आभास हुआ कि जिस बोझ को वो पीठ पर सालों से ढो रहा था वो पल भर में कहीं गायब हो चुका है। ये लोकतंत्र का उच्चीकरण था जिसकी वो कोई भी क़ीमत उठाने को तैयार था।

बगुले जिस ऊँचाई पर कछुए को लेकर उड़ रहे थे वहाँ से दुनिया छोटी नज़र आ रही थी। सरोवर के पास बनी आसमान छूती मूर्ति, सड़कों पर चींटियों की तरह घरों को लौटते लोग, बड़ी बड़ी अट्टालिकाएं देख कछुए की गर्दन गर्व से अकड़ गयी। उसे समझ आ गया था कि लोकतंत्र की अहमियत और मज़बूती हवाई यात्राओं में ही है। वो इस उड़ान के बाद अच्छे दिनों के उस समुद्र में गोते लगाने को भी बेताब था जहां तक उसे पहुँचाने का वादा दोनों बगुलों ने किया था।

उधर अहंकार में डूबे दोनों बगुले डंडी को मुँह में दबाए उसी रास्ते पर बढ़ रहे थे जो उन्होंने पहले से तय कर रखा था। इस उड़ान का विचार उन्होंने कछुए पर तरस खाकर नहीं बल्कि उसे अपनी ताक़त दिखाने के लिए रखा था। दोनों कछुए को समुद्र के ऊपर ले जाने की बजाय बड़ी बड़ी शिलाओं की ओर ले गये। मौका देख कर उन बगुला भगतों ने जय श्री राम का नारा लगाया और अर्थव्यवस्था की डंडी को उसके हाल पर छोड़ दिया।

कछुआ और डंडी दोनों तेज़ी से नीचे गिरने लगे लेकिन लोकतंत्र ने फिर भी अपनी चुप्पी नहीं तोड़ी। कछुए को समझ आ चुका था कि बदलाव के नाम पर बगुला भगतों के जो विकल्प उसने चुने थे वो अब उससे जीने का विकल्प भी छीन चुके हैं। उन्होंने सच ही कहा था, न भूतो न भविष्यति।

@भूपेश पन्त

(नोट: तभी से कछुए के पास आवाज़ नहीं है)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *