ये बहुत पुरानी बात है जब लगातार कई चुनाव भारी मतों से जीतने के बाद एक लोकतंत्र की सरकार ने देश के हित में तानाशाही लाने का फ़ैसला किया। स्वघोषित तानाशाह ने अपने निर्णय में लिखा कि जिस देश की जनता को इतने समय बाद भी अपने वोट की क़ीमत ही ना पता हो उससे ये अधिकार छीन लिया जाना चाहिए। उन्होंने इसे मूर्खता की पुनरावृत्ति को रोकने के प्रति सरकार की संविधान प्रदत्त जवाबदेही करार दिया।
जनता ने इस राहत का स्वागत तानाशाह की क़दमबोसी से किया। मीडिया ने बताया कि किस तरह तानाशाह ने चुनाव का ख़र्च बचा लिया। न्यायालय ने इसे भारी बहुमत से चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार का साहसिक निर्णय कहा। कुल मिलाकर सभी ने कहा कि कई मूर्खतापूर्ण निर्णयों की तुलना में एक ही बार बड़ी मूर्खता का निर्णय करना अधिक विवेकपूर्ण निर्णय है। इससे देश अनिर्णय की स्थिति में पहुँचने से बच गया।
जिन लोगों ने उस वक़्त बुद्धि और तर्कों से इस निर्णय का विरोध किया, उन्हें जनता का ज़बरदस्त प्रतिरोध झेलना पड़ा। जनता का मानना था कि जिस निर्णय को लेने में बुद्धि की ज़रुरत ही नहीं वहाँ उसे व्यर्थ क्यों किया जाए। उनका आरोप था कि चुनाव करने से लेकर वोट डालने तक की दुस्साध्य प्रक्रिया में दिमाग़ के इस्तेमाल पर ज़ोर देना समाज को एक करने की बजाय दो भागों में बाँट देगा। कालांतर में प्रकारांतर से यही विभाजनकारी लोग बुद्धिजीवी कहलाये।
@भूपेश पन्त