हर दिन बातों से तमाम करते हो
सुना है कि तुम क़त्लेआम करते हो।
बन गये हो दानिशमंद अब इतने
सुई घुमा के सुबह को शाम करते हो।
देखी नहीं है चाँदनी कभी शायद
इसीलिए सूरज को सलाम करते हो।
परस्ती यूँ भी सस्ती नहीं वतन की
जितनी नुमाइश सरेआम करते हो।
मिट गया वज़ूद उसी दिन तुम्हारा
जब से तुम टोली में काम करते हो।
बेवकूफ़ी को साहस समझ बैठे
जाने कब ख़ुद को गुलाम करते हो।
उजड़ी बस्तियाँ, ख़ूँ, वहशतें, लाशें
देखें वसीयत किसके नाम करते हो।
तुम बस फ़ूट फ़ूट के रो दिया करो
फ़ालतू का काहे तामझाम करते हो।
उसका नाम जप जप कर दिन रात
ग़रीब का बस जीना हराम करते हो।
मिटा देते हो आख़िर उसी की हस्ती
जिसको भी झुक के प्रणाम करते हो।
@भूपेश पन्त