एक बूढ़ा सनकी वैज्ञानिक अपनी गोपनीय और बेतरतीब सी प्रयोगशाला में दोनों हाथ कमर पर रखे चहलकदमी कर रहा है। आज उसने अनेकता को एकता में बदलने का नया फार्मूला ईजाद कर लिया है। वैज्ञानिक का ये आविष्कार विचित्र तरीके से अनेकता में से पहले ‘अन’ को अलग करता है और एकता को बचा कर बाक़ी सब कुछ खत्म कर देता है। इस वैज्ञानिक का मानना है कि समाज में जब ‘अन’ यानी अतिरिक्त लोगों की ‘अन’ यानी सांसें छीन ली जाएं तो समाज एकरूप और एकाकार हो सकता है। वो चाहता है कि इस तरह पूरा समाज मशीनी बन कर उस एक रिमोट कंट्रोल पर आधारित हो जाए जो उसके पास है।
वैज्ञानिक को अब अपनी इस खोज का प्रयोग करने के लिये ऐसे चूहे चाहिये जो एक ही तरह की नस्ल के हों। खास बात ये है कि ज़्यादातर चूहे सफ़ेद हों ताकि नफ़रत की सुई लगाकर खुले आम छोड़ने के बाद उन्हें आसानी से पहचाना भी जा सके। एक विशाल कक्ष में मौज़ूद अनेक रंग, वेशभूषा और खानपान के चूहों के सामने वैज्ञानिक देशभक्ति की जादुई बीन बजाता है। देखते देखते कई सफेद और कुछ दूसरे रंगों के चूहे मंत्रमुग्ध होकर उसके पास आ जाते हैं। वैज्ञानिक के पूरे जिस्म पर रेंगते हुए उसे गुदगुदाहट भरी भक्ति का बोध कराने लगते हैं।
वैज्ञानिक अपनी इस सनक को पूरा होने की हद तक जाते देख ताली पीट पीट कर अट्टहास करने लगता है। उसे पता है कि इस प्रयोग का सफ़ल होना कोई संयोग नहीं बल्कि उसकी कड़ी मेहनत का परिणाम होगा। बरसों तक खुद के भीतर इस उन्मादी जहर को पालना किसी इंसान के लिये मुमकिन ही नहीं है। वैज्ञानिक अपने पास आये सभी चूहों में इस जहर को बाँट देता है और समाज के बाकी चूहों के बीच एक राष्ट्र, एक मालिक का कोडवर्ड दे कर छोड़ देता है।
राष्ट्रवाद के उन्माद में चूर ये सभी चूहे धीरे धीरे अपने ही समाज के बाकी चूहों के साथ संबंधों और भाईचारे को कुतरने लगते हैं। इसके बाद बारी आती है अपने से अलग दिखने, बोलने या खाने वाले चूहों का शिकार करने की। प्रयोग में शामिल न होने वाले चूहे एकजुट होकर एक दूसरे का बचाव करते हैं तो उन्हें बिना किसी भेदभाव के कुतर दिया जाता है। इंसानियत तो ख़ैर चूहों में होती ही नहीं तो उसकी बात क्या करनी। इस तरह बूढ़े वैज्ञानिक की सनक के एक ऐसे समाज का निर्माण होता है जो केवल नफ़रत को एकाकार करता है।
आपको लग रहा होगा कि कथानक का क्लाइमैक्स यही है। इसका मतलब आप अभी क्रोनोलॉजी को सही तरह से नहीं समझे। दरअसल ये तो मध्यांतर है।
सनकी वैज्ञानिक अपनी कामयाबी पर खुद ही अभिभूत है लेकिन अभी उसे अपनी इस खोज के साइड इफैक्ट से न चाहते हुए भी साक्षात्कार करना ही पड़ेगा। उधर देशभक्ति में लीन चूहे जैसे जैसे समाज के भीतर मत भिन्नता का शिकार कर रहे हैं उनका आकार और भूख भी बढ़ती जा रही है। सामने वाले सभी चूहों को उनके अंजाम तक पहुंचाने के बाद ये रक्त पिपासु चूहे वैज्ञानिक से और शिकार की मांग करने लगते हैं। और कोई चारा न देख के वैज्ञानिक उन्हें देश हित में ये मसला आपस में ही निपट लेने की कमांड दे देता है।
प्रयोगवादी वैज्ञानिक शीशे के सुरक्षित केबिन में बैठ कर चूहों के समाज को (जो उसका भी समाज है) आबादी के लिहाज़ से छोटा और ताक़त के लिहाज़ से दैत्याकार होते देख रहा है। वही चूहे जो कल तक सफ़ेद चूहों के साथ मिल कर अपनी नस्लों को कुतर रहे थे अब वो ही अपनी नस्ल के कारण उनके निशाने पर हैं। इसके बाद तो बचे हुए सफ़ेद दैत्याकार चूहे आपस में ही भिड़ने लगते हैं। कोई किसी को झक्क सफ़ेद न होने के लिये तो कोई किसी की चाल को संदिग्ध बता कर ही मारने लगता है। देखते देखते ये बचे खुचे चूहे अपनी सीमा लांघकर वैज्ञानिक के केबिन की ओर दौड़ पड़ते हैं।
अपनी कामयाबी को अपना दुश्मन बनते देख वो बूढ़ा वैज्ञानिक चूहा हैरान तो है लेकिन परेशान नहीं। वो ये साबित कर चुका है कि उसकी ये खोज चूहों के भरे पूरे समाज को चुटकी में बर्बाद कर सकती है। वो केबिन के भीतर से ही कुछ बटन दबा कर अपने ही पाले हुए चूहों को मार गिराता है और फिर प्रयोगशाला के तहखाने में बनी सुरंग में खो जाता है एक नये समाज की तलाश में।
दरअसल चूहों पर हॉलीवुड स्टाइल की एक एनीमेशन फिल्म के लिये ये कथानक रचा गया है। आप पूछेंगे कि इस फ़िल्मी कथानक में सनकी वैज्ञानिक का कोई भी विपक्ष क्यों नहीं है। अगर आपको चूहों के समाज में कोई दिखता हो तो आप जोड़ दीजिये मुझे तो नफ़रत के खिलाफ़ इतनी ही सनक से भरा विपक्ष अभी तक तो कहीं दिखा नहीं। वैसे कोई चाहे तो इंसानों पर भी ऐसी फिल्म का प्रयोग हो सकता है। बस चूहे और इंसान का फ़र्क साफ़ नज़र आये इसके लिये इंसानी फ़िल्म में कुछ बाग़ बग़ीचे प्रयोग में लाने पड़ेंगे जहाँ अंतत: सत्य के दैवीय प्रयोग हर तरह की नफ़रत को बिरियानी बना कर हज़म कर जाते हों।
@भूपेश पन्त