प्रधान जी गुस्से से कमरे में टहल रहे हैं। तनाव से पसीना चेहरे के साथ साथ टीशर्ट को भी हर जगह से भिगोने लगा है। नेताजी हाथ में पकड़ी एक्यूप्रेशर की डंडी को हथेलियों से ऐसे मसलने लगते हैं जैसे किसी मासूम की गर्दन हाथ लग गयी हो। तभी अचानक बिजली लौट आने से एसी की ठंडी हवा कमरे में बिखर कर उन्हें समुद्र तट का आभास देने लगती है। तनाव कुछ कम होने पर नेताजी कमरे में गुस्से से फाड़ कर खुद ही फेंके कागज की चिंदियां और पानी की बोतल उठाने लगते हैं।
‘साहब को नसों की अच्छी जानकारी है। वो किसी की भी कमज़ोर नस पकड़ लेते हैं और अपनी हर नस हठ योग से मज़बूत रखते हैं।’
प्रधान जी का असिस्टेंट उनके सबसे खास आदमी शाह बहादुर के साथ कमरे में दाखिल होते हुए फुसफुसाया।
‘तुम ज़्यादा मत बोलो और अपनी नस का ध्यान रखो। कहीं ग़लती से ग़लत जगह दब गयी तो…’
शाह बहादुर ने उसे चुप कराते हुए धमकाया और वापस जाने का इशारा किया।
‘हुजूर… मुझे इस तरह अचानक क्यों बुला लिया..? वैसे भी कोई परेशानी तो आप तक पहुँच ही नहीं सकती क्योंकि उसके जनक तो आप खुद होते हैं।’
शाह बहादुर चापलूसी के अंदाज़ में ही ही कर हँसा।
प्रधानजी ने शीशे के सामने जाकर पहले अपना मेकअप किट खोला और टचअप के बाद मुँह।
‘बस… शाह बहादुर जी मैंने अपने गांव के लोगों की नब्ज तो पकड़ ली लेकिन ये कमबख़्त बाहर वाले पकड़ में नहीं आ रहे हैं। पता नहीं कौन सा नो बेल पुरस्कार घोषित कर दिये हैं अपने ही इलाके के किसी अनर्थशास्त्री के नाम। मैं कैसे रह गया?’
‘अरे साहब आप को कौन सा अवार्ड की कमी है हिटलर.. बटलर.. पता नहीं कितने आप अपने जलवे से हासिल कर चुके हैं।’
शाह बहादुर ने प्रधान जी को समझाने की कोशिश की।
“वो तो ठीक है लेकिन हमने अपने यहां शांति फैलाने के लिये क्या नहीं किया। भीड़ को उकसा कर फिर शांत किया। क़ानूनों की तलवार लोगों की ज़ुबान पर रख दी और पटना से लेकर पंजाब तक ख़ामोश और ओए गुरू बोलने वालों तक को चुप करा दिया। दिल्ली वालों की खांसी बंद करा दी और खुद को आँधी समझने वालों को जिन्न की तरह बोतल में बंद कर दिया…’
‘हुज़ूर आप शांत हो जाइये… ‘
शाह बहादुर ने सियारी मुस्कान चेहरे पर लाते हुए विनती की।
‘…. मैंने शांति के लिये जीवन भर क्या नहीं किया। घर बार छोड़ा, माता का दरबार छोड़ा, जोगी बन दर दर भटका तब कहीं जा कर सत्ता पर अटका। लोगों को शांत करने के लिये कहीं बंदूकों का सहारा लिया तो कहीं तोपों.. सॉरी तोतों का। मन की शांति तो मुझे आज भी लोगों को रोता कलपता और मरता देख कर मिल जाती है लेकिन सियासी शांति तो ये नो बेल का शांति पुरस्कार पा कर ही मिलेगी।’
प्रधान जी ने अपने मन की बात बिना कुछ सुने जैसे एक सांस में कह दी। फिर उन्होंने रुक कर अनुलोम में गहरी सांस ली। एक बार दीवार पर लगे कैमरे की ओर देखा और हाथ में पकड़ी खाली बोतल और चिंदियों को शाह बहादुर को अमानत की तरह सौंपते हुए मुस्कुराये।
‘मेरी इज्ज़त अब तुम्हारे हाथ में है शाह बहादुर।’
‘मैं आपकी इज्ज़त बिकने.. मेरा मतलब है गिरने नहीं दूँगा।’
ये कह कर शाह बहादुर ने दोनों हाथों से कूड़े को और कस कर पकड़ लिया।
‘मुझे बस ये जानना है कि इस नो बेल पुरस्कार को पाने के लिये हमको क्या करना पड़ेगा। तुम्हें कुछ पता है इस बारे में?’
प्रधान जी ने सवाल दागा।
‘बस हुज़ूर हम हैं थोड़ी शैतानी खोपड़ी। आप को तो पता ही है कितने चक्कर काट चुके हैं कोर्ट कचहरी के। तड़ीपार भी हो चुके हैं। अपने अनुभव से तो हम हर एक बात समझ गये हैं इस अवार्ड के बारे में.. ‘
‘वो क्या… जल्दी बताओ?’
‘मुझे लगता है कि इस अवार्ड को पाने के लिये आपको अपने सारे गुनाह कुबूलने होंगे।’
‘अरे.. लेकिन हमने तो कोई गुनाह किया ही नहीं।’
‘हुज़ूर.. लेकिन अब तक जो किया है वो सब किसी गुनाह से कम भी तो नहीं है। बस हिम्मत करके एक बार सबके सामने कुबूल कर लीजिये और ये अवार्ड आपका।’
शाह बहादुर अपनी समझदारी पर इतराते हुए बोला।
“लेकिन फिर सत्ता का क्या होगा?’
‘हुज़ूर भोले भाले लोगों की नस तो आपके ही पास है। वो तो शानदार अवार्ड समारोह और आपकी तस्वीरें देख कर ही सम्मोहित हो जाएंगे।’
‘वो तो ठीक है लेकिन इससे मुझे पुरस्कार कैसे मिलेगा… ये तो बताओ?’
प्रधान जी ने जैसे हथियार डालते हुए बोला।
‘अरे हुज़ूर… इतने गुनाह स्वीकारने के बाद आप पर मुक़दमा चलेगा और कोर्ट कहेगी… नो बेल। ये देख कर अपने इलाके के सारे लोग सन्नाटे में आ जाएंगे। मुझे लगता है तब अवार्ड गैंग को आपको चुपचाप ये नो बेल शांति पुरस्कार देना ही पड़ेगा।’
‘और… वो शास्त्री का क्या?’
‘हुज़ूर वो तो आप पहले से ही हो… जुमला शास्त्री।’
और फिर दोनों एक साथ जैसे कल्पना से बाहर आये और एक दूसरे की सूरत देख कर ज़ोर से हँस पड़े।
@भूपेश पन्त