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सटायर हिन्दी

विद्रूपताओं का आईना

क्योंकि मैं गाँधी जैसा हूँ!

Byआज़ाद

Oct 2, 2019

मित्रो! आज तो देश में जैसे गाँधीजी के नाम की चारों तरफ़ लूट मची हुई है। गाँधी जयंती पर इस तरह चल रही खुलेआम डकैती में मुझे भ्रष्टाचार और काले धन का हाथ दिखायी दे रहा है। वैसे भी देश में मुझसे बड़ा गाँधीवादी कौन हो सकता है भला! मैं तो हर व्यक्ति में गाँधी को ही देखता हूँ। मुझे चेहरा देखकर ही अहसास हो जाता है कि उसकी जेब में कितने गाँधी हैं, विचार तक तो पहुंचता ही नहीं। उनका तो मैं भक्तों से भी बड़ा भक्त हूँ और गाँधी को पाने के लिये दर दर भटकता हूँ। कभी इस बैंक कभी उस बैंक। मुझे गाँधी से इतना मोह है कि किसी और के पास उनका होना मुझे बिल्कुल नहीं भाता सिवाय उन लोगों के जो गाँधी तक मेरी पहुँच बनाये रखने में मददगार साबित होते हैं। वो मैं ही हूँ जिसने किसी की परवाह किये बिना गाँधी जी की तस्वीर में अपनी पसंद के नये रंग भरे। मैं तो चाहता हूँ कि आम लोग गाँधी के लिये इतना तरसें कि उनके दर्शन की प्यास लिये लाइन में लगने और मर मिटने को तक तैयार हों। सच पूछो तो मैं गांधी को इस देश का राष्ट्रपिता ही नहीं रहने देना चाहता। मैं उन्हें भगवान का वो दर्ज़ा देना चाहता हूँ जो कि वो हैं भी।

मित्रो! मैं लोगों को गाँधी का अहिंसा का संदेश याद दिलाना चाहता हूँ। लेकिन ये तो तभी संभव है ना जब देश में जगह जगह हिंसा हो, हत्याएं हों। लोग जब तक अराजक नहीं होंगे मैं उन्हें गाँधीजी की अराजकता का अर्थ कैसे समझा पाऊंगा। मैं जानता हूँ कि मेरे इस गाँधी प्रेम को बरकरार रखने के लिये मेरे चाहने वाले लगातार प्रयासरत हैं। वो मैं ही हूँ जिसने रामधुन और गाँधीजी के अंतिम शब्द हे राम को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया है। गाँधीजी ने बकरी पाली थी लेकिन मैंने तो कुछ बकरियाँ और ढेर सारी भेड़ें पाली हैं। बकरियाँ अच्छा चारा खाकर दूध देती हैं और भेड़ों के ऊन को गाँधीजी के चरखे पर कात कर मैं उन्हें ही कंबल नहीं नहीं टोपी पहनाता रहता हूँ। इससे हमें अपनी अर्थव्यवस्था को स्वावलंबी बनाने की प्रेरणा मिलती है। गाँधी के आगे मेरे इस समर्पण से लोगों की हालत अब ऐसी हो गयी है कि उन्हें स्वदेशी लघु और कुटीर उद्योग याद आने लगे हैं। यहाँ तक कि मैं गाँधीजी के ट्रस्टीशिप के विचार से इतना प्रभावित हुआ कि खुद को प्रधान ट्रस्टी ही घोषित कर दिया है।

मित्रो! छुआछूत को लेकर गाँधीजी के जो विचार थे उन्हें फिर से फैलाने के लिये मैंने प्राचीन युग का सहारा लेने से भी परहेज़ नहीं किया। अब छोटे लोग फिर से समझने लगे हैं कि बड़े लोगों के रास्ते में आने पर क्या नुकसान हो सकता है। उसके बाद मैं ऐसे ही कुछ प्रताड़ित लोगों के पाँव पखार कर गाँधीजी के बराबरी के संदेश को अपने ज़ोरदार प्रचार से लोगों तक पहुँचाता हूँ। मैंने धीरे धीरे सारी संवैधानिक संस्थाओं को घोर गाँधीवादी बना दिया है। पत्रकारिता में तो गाँधीजी की बहुत रुचि थी। मैंने वहां भी गाँधीजी के तीन बंदर बैठा दिये हैं जो न तो मेरा बुरा सुनते हैं, न देखते दिखाते हैं और न ही बोलते हैं। बस कुछ लिखने वाले क़ाबू में नहीं आ रहे। भूखे मरेंगे तो देर सवेर वो भी मेरी तरह गाँधी के रास्ते पर चलने लगेंगे।

सत्य को लेकर गाँधीजी का जो आग्रह था मैंने उसके पालन में सौ गुना इज़ाफ़ा किया है। मित्रो। मैं मानता हूँ कि सच को तलाशना आसान नहीं होना चाहिए ताकि लोगों में उसके प्रति उत्सुकता बनी रहे। वैसे भी एक नंगे सच का सौ झूठ के पर्दों में छिपे रहना ही देश के पुरातन संस्कारों की रक्षा के लिये ज़रूरी है। मैं हमेशा सच बोलता हूँ क्योंकि जिस सच को जानना लोगों के लिये आवश्यक नहीं समझता उसे मैं बोलता ही नहीं हूँ। इसीलिए मैं कांफ़्रेंस वांफ्रेस में विश्वास नहीं रखता बस मेरे मन की बात वही है जो गाँधीजी के मन की थी। उनके सत्याग्रह को मैंने सत्ताग्रह की ऊँचाई तक पहुँचा दिया है। मेरा सारा सच एक भविष्यवाणी की तरह होता है जिसे साबित होने या न होने में इतना वक़्त लगे कि सच और झूठ एकाकार हो जाये या उसका होना न होना अपना अर्थ खो दे। इससे सत्ता के साथ साथ कड़वा सच भी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को स्थानांतरित होता है और उसकी प्रासंगिकता बनी रहती है।

गाँधीजी की स्वच्छता के प्रति जागरूकता ने मुझे इतना प्रेरित किया है कि नौकरियों से लोग साफ़ हो गये और जेब से गाँधीजी। मित्रो, कमाल की बात तो ये है कि इस सारी गंदगी का इस्तेमाल मैं जंगल में फूल खिलाने के लिये कर रहा हूँ ताकि पर्यावरण की रक्षा हो सके। मैंने महसूस किया है कि उनका असहयोग का सिद्धांत तो हमारे लिये सबसे मुफीद है। इससे हमें अपने विरोधी आसानी से पहचान में आ जाते हैं और फिर हम उनके खिलाफ़ हर जगह हर मुमकिन कोशिश से असहयोग आंदोलन शुरू कर देते हैं। इसमें गाँधीजी की लाठी का भी इस्तेमाल करना पड़ता है ताकि लोग उसे पहचानें और देश का युवा भी ऊर्जावान बना रहे।

मित्रो! जैसा कि सब जानते हैं कि मैं आज़ादी के बाद की पैदाइश हूँ और मेरा तो क्या मेरे बाप दादा का भी कभी गाँधी और आज़ादी के आंदोलन से कोई लेना देना नहीं रहा। फिर भी मुझे लगता है कि मुझ जैसे पुरानी पीढ़ी के लोगों की ये ज़िम्मेदारी बनती है कि आज के बेलग़ाम युवाओं को आज़ादी की क़ीमत का अहसास हो। इसके लिये चलने फिरने और बोलने की आज़ादी की बात करने वालों को देशद्रोही ठहराना जैसे काम गाँधीवाद को मजबूत करने के मेरे राष्ट्रीय मिशन का हिस्सा हैं। आजकल मैं इसी मिशन पर तेज़ी से काम कर रहा हूँ और एक इलाके से इसकी शुरुआत भी कर चुका हूँ।

गाँधी ऐसे ही नहीं मिलते उन्हें मेहनत से कमाना पड़ता है जिस तरह मैं करता हूँ दिन रात। इसीलिये जो मेरे गाँधी को कुछ भी कहता है मैं उसे कभी दिल से माफ़ नहीं करता। गाँधीवाद पर अमल करने को लेकर तो मैं गाँधी से भी कहीं आगे निकल गया हूँ। पर एक बात मैं साफतौर पर कह देना चाहता हूँ मित्रो कि मैं गाँधीजी को भगवान बना कर कभी भी उनकी जगह नहीं लेना चाहता लेकिन अगर उन्हें भगवान बनाने के लिये मुझे ये कुर्बानी भी देनी पड़ेगी तो मैं खुशी खुशी दूँगा। देश की आज़ादी के बाद पहली बार गाँधीजी के सपनों का नया भारत साकार करने के लिये उसे जन्म देने में मेरा ये पितातुल्य योगदान इतिहास में ज़रूर दर्ज़ होगा। सुन रहे हो ना इतिहासकारो, बुद्धिजीवियो, अर्बन नक्सलियो। तुम क्या जानते हो, अरे तुम कुछ नहीं जानते।

@भूपेश पन्त

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