एक बेचारा दो हजारी तिल तिल कर मरने के लिये छोड़ दिया गया है। उसके अवसान का दिन भी तय कर दिया गया है 30 सितंबर। लेकिन मैं देख रहा हूँ कि उसकी इस हालत पर भी कई लोगों की हँसी छूट रही है। कोई तंज कस रहा है तो कोई उसे इस अंत के ही लायक बता रहा है। हमारा नोटोन्मुख समाज इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है?
कोई ये देखने को तैयार नहीं है कि एक वो दौर था जब पाँच सैकड़ा और एक हजारी का एक झटके में क्रिया कर्म कर दिया गया था। लेकिन इस गुलाबी से दो हजारी को धीरे-धीरे हलाल किया जा रहा है। क्या इससे किसी की भावनाएं आहत नहीं हो रही हैं।
वैसे सच ही है कि जब इसके जन्मदाता को ही कोई कष्ट न हो और वो इसे अपने हाल पर छोड़ कर ख़ुद विदेश निकल ले तो भला निष्ठुर समाज को दो हजारी का दर्द क्यों हो। वो जानें जिन्हें उसे पाल पोस कर सहेजने का मौक़ा मिला हो। अधिकाँश लोगों ने तो उसे फोटो में ही देखा था इसलिये उन्हें दो हजारी से अपने अर्थशास्त्रीय संबंध के बारे में कुछ पता ही नहीं।
लेकिन कभी-कभी किसी को किसी की तस्वीर से ही प्यार हो जाता है। मेरी हार्दिक संवेदनाएँ उन सभी भावुक लोगों के साथ हैं।
अलविदा दो हजारी, तुम जहाँ भी रहो खुश रहो। हम अब आने वाले की राह देखेंगे ताकि दुनिया चलती रहे तुम्हारे बिना भी।