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विद्रूपताओं का आईना

उत्तराखंड में ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ !

Byआज़ाद

Oct 6, 2015

उत्तराखंड पहुंचे अडानी

(पीएम के खासमखास कारोबारी अडानी अब उत्तराखंड में अपने कारोबार का विस्तार करेंगे। अडानी ग्रुप पिछले एक दशक में देश का सबसे तेजी से बढ़ने वाला समूह है। विकास की दौड़ में मोदी के साथ कदम से कदम मिला कर चल रहे अडानी समूह को मोदी की ईस्ट इंडिया कंपनी कहना गलत नहीं होगा। विधानसभा चुनाव से पहले उत्तराखंड पहुंची ये कंपनी कई राज्यों में घोटालों की आरोपी है। अपने कारोबारी हितों को सुरक्षित करने के लिये कंपनी ज़रूर चाहेगी कि राज्य में अगली सरकार बीजेपी की बने। फिर कांग्रेस की मौजूदा सरकार इतनी खुश क्यों है?)

पीएम नरेंद्र मोदी के प्रबल समर्थक माने जाने वाले अडानी औद्योगिक समूह ने अब उत्तराखंड में दस्तक दी है। देश विदेश में कारोबारी विस्तार कर चुके अडानी ग्रुप का उत्तराखंड पहुंचना कोई हैरान करने वाली बात नहीं लेकिन कई तरह के विवादों में घिरी इस कंपनी की कार्यशैली कुछ सियासी सवालों को जन्म ज़रूर दे रही है। उत्तराखंड के सीएम हरीश रावत इसे प्रदेश के लिये बेहतर मान कर समूह का स्वागत कर रहे हैं तो वहीं विपक्षी बीजेपी भी मोदी की इस ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ के आगे नतमस्तक हो रही है। अडानी ग्रुप के साथ हो रही डील नौकरशाहों के साथ साथ बीजेपी को भी रास आ रही है क्योंकि कारोबार के ज़रिये सियासी खेल को बदलने की मोदी की क्षमता पर उन्हें तनिक भी संदेह नहीं है। खबर है कि अडानी ग्रुप राज्य में पांच हज़ार करोड़ का निवेश करने जा रहा है जिनमें से हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट के लिये तीन हज़ार करोड़ तक का निवेश किया जा सकता है। इसके अलावा सोलर प्लांट और पावर में ट्रांसमिशन के क्षेत्रों में भी समूह की कंपनी के निवेश पर सहमति बनी है। केंद्र में जब से बहुमत की मोदी सरकार आयी है कुछ बड़े कारोबारियों के अच्छे दिन आ गये हैं। अडानी ग्रुप भी उनमें से एक है। और फिर क्यों ना आयें अच्छे दिन, आखिर सरकारें कोई भी रहें, मुनाफाखोरों की तो हमेशा ही मौज होती है, बस कुछ चेहरे बदल जाते हैं।

ये महज संयोग नहीं है कि देश के सबसे अमीर कारोबारियों में से एक गौतम अडानी के कारोबार का टर्न ओवर 2002 में 76.50 करोड़ डॉलर से बढ़कर करीब 10 अरब डॉलर तक पहुंच चुका है। पिछले एक साल में अडानी समूह ने 48 फीसदी मुनाफा कमाया है। ये वो दौर है जब केंद्र में मोदी की अगुवाई वाली मजबूत सरकार सत्ता में आयी। वैसे मोदी से अडानी के रिश्ते काफी पुराने हैं। इन संबंधों की गहराई सबसे पहले तब सामने आयी जब 2002 के गुजरात दंगों के बाद सीआईआई से जुड़े प्रमुख कारोबारियों ने हालात से निपटने को लेकर मोदी की आलोचना की। इस दौरान अडानी ने आगे बढ़ कर  कारोबार जगत में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के पक्ष में माहौल बनाया और फिर सियासत में मोदी की मजबूती के साथ ही अडानी के कारोबार में भी तेजी आती गयी। पिछले लोकसभा चुनावों में गौतम अडानी ने मोदी के प्रचार में पैसा पानी की तरह बहाया था और पीएम पद की शपथ लेने के लिये मोदी अडानी के हैलीकॉप्टर से ही आये थे। मोदी ने अडानी से कितनी मदद ली और वो इसे किस रूप में चुका रहे हैं, ये सवाल तो अहम हैं ही लेकिन एक लोकतांत्रिक देश में किसी खास कंपनी का ऐसा विस्तार और पूंजी का केंद्रीकरण पूंजीपतियों के साथ सियासी गठजोड़ के औचित्य पर भी गंभीर सवाल उठाता है। सवाल ये कि क्या अडानी समूह मोदी के लिये ईस्ट इंडिया कंपनी की तर्ज़ पर काम कर रहा है? क्या उसके कारोबार का विस्तार बीजेपी के लिये सियासी नफे का सौदा साबित हो रहा है? क्या इसे कानूनों की आड़ में चुनावी फंडिंग के ज़रिये भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने का सटीक उदाहरण माना जा सकता है? क्या उत्तराखंड में अडानी की दस्तक राज्य में चुनावी खर्च के बढ़ने और बीजेपी की सत्ता में वापसी के संकेत दे रही है?

52 वर्षीय गौतम अडानी का बढ़ता मुनाफा और तेजी से फैलता समूह क्या सरकारी तंत्र के साथ किसी बड़े गठजोड़ का संकेत है, ये जांच का विषय है। फिलहाल तो अपने राजनीतिक रसूख और मोदी से कथित करीबी रिश्तों के कारण अडानी की कंपनी के खिलाफ आर्थिक अनियमितताओं के आरोपों की जांच ठंडे बस्ते में है। अडानी ग्लोबल के खिलाफ 2000 करोड़ की अनियमितता के आरोप हैं लेकिन घोटाले की इस कथा को सामने लाने में जांच अधिकारी बेबस नज़र आ रहे हैं। पिछले साल जुलाई में सीबीआई ने जिस कंपनी पर 2300 करोड़ की धोखाधड़ी का केस दर्ज़ किया हो उसे नवंबर में सरकारी बैंक 6000 करोड़ का कर्ज़ दे दे ये बात गले नहीं उतरती। एसबीआई और अडानी के बीच हुआ ये समझौता बानगी है कि आम आदमी का पैसा किस तरह से एक कारोबारी को राहत देने के लिये लुटाया जा रहा है।

वैसे अडानी से जुड़े घोटालों की फेहरिस्त लंबी है। ऐसे खुलासे हो चुके हैं कि कई राज्यों की सरकारों ने अडानी की कंपनियों को पांव पसारने में सीमाओं से आगे जाकर मदद की। ये भी कोई छिपी हुई बात नहीं कि कई पूर्व नौकरशाहों को बड़े पदों पर बैठा कर अडानी समूह सरकार और विभागों से उनके व्यक्तिगत सम्बन्धों का इस्तेमाल कारोबारी हितों के लिये करता रहा है। मोदी की गुजरात सरकार पर अडानी समूह को देश के सबसे बड़े बंदरगाह मुंदड़ा के लिए कौड़ियों के भाव ज़मीन देने का आरोप लगा था। पिछले साल मई में बिजली बनाने के उपकरणों के आयात की क़ीमत बढ़ाकर दिखाने के लिए अडानी की कंपनी को नोटिस जारी किया गया था। अडानी ग्रुप के प्रबंध निदेशक और गौतम अडानी के भाई राजेश अडानी को कथित तौर पर कस्टम ड्यूटी चोरी के मामले में 2010 में गिरफ़्तार भी किया गया था। झारखंड के परसा कोल ब्लॉक को 2006 में कोयला खनन के लिये अडानी समूह को सौंपे जाने के लिये की गयी पूरी कवायद सवालों के घेरे में रही है। बीजेपी की रमन सरकार के साथ हुए इस सौदे में अडानी को तो जम कर मुनाफा हुआ जबकि कैग की रिपोर्ट के अनुसार सरकार डेढ़ हज़ार करोड़ से ज्यादा गंवा बैठी। छत्तीसगढ़ में अडानी इंटरप्राइजेज ज्वाइंट वेंचर के तहत कोयला खनन कर रही है। सुप्रीम कोर्ट ने कोयला घोटाले के बाद सारे कोल ब्लॉक अवैध घोषित कर दिये लेकिन अडानी का खेल बदस्तूर जारी है। उत्तर प्रदेश की पिछली बीएसपी सरकार ने बिजली संकट को बहाना बनाते हुए प्राइवेट कंपनी से बिजली खरीदने का फैसला किया तो उसे भी अडानी ग्रुप ही नज़र आया। ऊर्जा विभाग के ज़रिये अडानी से बिजली खरीदने के फैसले ने लोगों को बिजली कटौती से कुछ राहत तो दी लेकिन आंकड़े बताते हैं कि इस काम में हजारों करोड़ रुपयों की बंदरबांट भी हुई। अडानी ग्रुप ने यूपी को उस वक्त 4 .35 रुपये प्रति यूनिट बिजली दी जबकि हरियाणा को वही बिजली 3 .10 रुपये प्रति यूनिट पर दी जा रही थी। यानी यूपी की तत्कालीन बीएसपी सरकार प्रति यूनिट सवा रुपये ज्यादा चुका रही थी। ज़ाहिर है अडानी को फायदा पहुंचाने के लिये नियमों और बिजली नियामक बोर्ड की आपत्तियों को ताक पर रख दिया गया। इतना ही नहीं, अडानी से जुड़े विवाद पिछले दिनों देश की सीमा पार कर ऑस्ट्रेलिया तक जा पहुंचे थे।

साफ है कि एक सधे हुए कारोबारी की तरह अडानी ग्रुप की निगाह मुनाफे पर टिकी हुई है और ये मकसद हासिल करने के लिये उसका गठजोड़ किसी खास राजनीतिक पार्टी तक सीमित नहीं रहा है। तो क्या अब उत्तराखंड की रावत सरकार भी अडानी की आवक को ऐसे ही किसी मौके के तौर पर देख रही है। राज्य में विपक्षी बीजेपी तो अडानी के साथ सरकार के किसी समझौते पर सवाल उठाने की स्थिति में ही नहीं है क्योंकि चुनावी फंडिंग ने उसका मुंह बंद कर रखा है। वो बस सरकार को इतनी नसीहत दे रही है कि सरकारी नीतियों में अडानी की सुविधा का ध्यान रखा जाये। ऐसे में राज्य के भ्रष्ट नौकरशाहों के लिये ये बहती गंगा में हाथ धोने सरीखा मौका हो सकता है।

@भूपेश पन्त

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