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सटायर हिन्दी

विद्रूपताओं का आईना

भागो नहीं (दुनिया को) बदलो !

Byआज़ाद

Jul 19, 2019

हिंदी साहित्य में राहुल सांकृत्यायन का नाम कौन नहीं जानता। ‘घुमक्कड़ी से बड़ा नगद धर्म कोई नहीं है’ कहने वाले राहुल जी का समूचा जीवन खुद भी घुमक्कड़ी का ही था। शारीरिक तौर पर उन्होंने कई देशों की यात्रा की तो वैचारिक तौर पर बौद्ध धर्म से लेकर साम्यवाद तक का सफर तय किया। उनके बचपन का नाम केदारनाथ पांडे था। वह बौद्ध दर्शन से इतना प्रभावित हुए कि स्वयं बौद्ध हो गए। तभी से उन्हें राहुल सांकृत्यायन के नाम से जाना जाने लगा। 9 अप्रैल 1893 में जन्मे राहुल जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने धर्म-दर्शन, लोक साहित्य, यात्रा साहित्य, इतिहास, राजनीति, जीवनी, कोश लेखन और प्राचीन ताल पोथियों का संपादन जैसे विविध क्षेत्रों में महत्वपूर्ण कार्य किया है।

राहुल जी ने प्राचीन और वर्तमान भारतीय साहित्य चिंतन को खुद में आत्मसात कर हमें मौलिक दृष्टि देने का प्रयास किया। 1927 से साहित्यिक जीवन की शुरुआत करने के बाद ना तो उनके पांव रुके और ना ही लेखनी। 1963 में अपने देहांत से पूर्व तक उन्होंने विभिन्न विषयों पर डेढ़ सौ से अधिक ग्रंथ लिख डाले। उनके लिखे लेखों निबंधों और भाषणों की तो कोई गिनती ही नहीं।

राहुल जी की भाषा शैली विषय के अनुसार ही अपना स्वरूप निर्धारित करती है। राजनीति पर अपनी पुस्तक ‘भागो नहीं (दुनिया को) बदलो’ में भी उन्होंने सीधी सादी सरल शैली का ही सहारा लिया है। दरअसल राहुल जी की यह पुस्तक कहानियों और उपन्यास के बीच की एक अनोखी और क्रांतिकारी रचना है। इस रचना का महत्वपूर्ण उद्देश्य कम पढ़े लिखे लोगों को आसान तरीके से राजनीति की समझ देना है। राहुल जी मानते हैं कि जब देश के प्रत्येक वयस्क नागरिक को वोट देने का अधिकार है तो यह और भी आवश्यक हो जाता है कि उन्हें अपनी अच्छाई और बुराई के साथ साथ यह भी मालूम हो कि राजनीति में किस तरह से दांवपेच खेले जाते हैं। यही वजह है कि इस किताब का नाम ही आम जनों के लिए एक नारे के रूप में रखा गया है, ‘भागो नहीं दुनिया को बदलो’ और यही इस पुस्तक का निचोड़ है।

1944 में लिखी अपनी इस पुस्तक की पहली छाप में राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं,

“राजनीति को थोड़े में पढ़े लिखे आदमियों के हाथ में दे कर अब चुप बैठा नहीं जा सकता। ऐसा करने से जनता को बराबर नुकसान उठाना पड़ा। जनता को वोट देने का अख्तियार दे देने से काम नहीं चलेगा, उसे अपनी भलाई बुराई भी मालूम होनी चाहिए और यह मालूम होना चाहिए कि राजनीति के अखाड़े में कैसे दांवपेच खेले जाते हैं। इस पोथी में इस बात को समझाने की मैंने थोड़ी सी कोसिस की है लोगों को इससे कुछ फायदा होगा या नहीं, इसे मैं नहीं कह सकता और इतना बड़ा काम एक पोथी से हो भी नहीं सकता।..”

इसी पुस्तक की तीसरी छाप में राहुल जी लिखते हैं,

“3 वर्ष पहले मैंने इस पोथी को लिखा था। तब से अपने देश में बहुत बड़ा फेर – फार हुआ है। उस बखत भी मैं देखता था कि लड़ाई के पीछे हिंदुस्तान को गुलाम बनाकर रखा नहीं जा सकता, सो बात अब आँख के सामने है। गुलामी गई मुदा गरीबी बाकी है। गरीबी दूर करके हिंदुस्तान को एक बलवान देश बनना है। रूस और अमेरिका के बाद तीसरी जगह अपने देश को लेनी है। मुदा, यह मुंह से कहने से नहीं होगा इसकी खातिर समूचे देश में पंचेती खेती, नए ढंग की खेती और कल कारखाने छा जाना चाहिए और जल्दी से जल्दी। कुल 25 बरिस हमारे पास हैं। इसी बीच हमें यह कुल मंजिल मारना है। यह तभी हो सकता है कि सब जगह सेठों के लाभ-सुभ को हटाकर देस की भलाई को सामने रखा जाये। सेठ और सेठ के पालक लोग लंबी लंबी बात करके भरमाना चाहते हैं और देस की भलाई का बहाना करके। हमें बात नहीं, काम देखना है। काम में देख रहे हैं कि लड़ाई के बखत भी सेठ लोगों ने दोनों हाथों से नफा बटोरा और आज भी उन्हीं की पाँच अँगुरी घी में है। खाली चीनी पर से आंकुस (कंट्रोल) उठाने से कई करोड़ रुपया सेठों की थैली में चला गया। कपड़ा और अनाज पर से आंकुस उठाने पर और बहुत करोड़ रुपैया सेठों और चोर बजारी बनियों की थैली में जाएगा। कब तक थोड़े से आदमियों के हाथ में देस का सारा धन देस की सारी जिनगीं बटुरती जाएगी? और, ऊपर से जो बेसी नफा पर बड़ा एकमटिकस (इनकम टैक्स) भी सेठों पर से उठा लिया गया है। सेठों के लिए सब काम फुर्ती से हो रहा है, जो हमारे सामने है।”

“दूसरी ओर जनता की भलाई के सब काम में आज-कल, आज-कल हो रहा है। जिम्मेदारी उठाने की बात खटाई में पड़ी हुई है। कमेरों के खिलाफ खूब हथियार चलाया जा रहा है और उनको फोड़ कर आपस में लड़ाने की तदबीर की जा रही है। बाहर से कमेरों के परघट दुश्मन बारयाम उछल कूद रहे हैं। मुदा, एक ही भरोसा है “जिसको शालिग्राम को भूलकर खाने में अबेर नहीं हुई उसे बैंगन भूनने में कितनी देर लगेगी?जनता की तागत बहुत बढ़ गई। जनता की सेवकों की भी तागत बहुत बढ़ी है। कुछ जन सेवकों को एक होने का बखत आ गया है। घर के भीतर कमुनिस, सोसलिस, फरवड बिलाकी, करन्तिकारी, सोसलिस आपस में चाहे लड़ो, मुदा बूझ लो कि अकेले चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। जो सब लोग आपुस में मिलकर काम नहीं कर सकते हैं तो कमेरों के पंचैती राज (समाजवादी प्रजातंत्र) का सपना दूर बहुत दूर चला जाएगा।”

‘भागो नहीं दुनिया को बदलो’ में राहुल सांकृत्यायन ने साधारण पृष्ठभूमि के लोगों के साथ प्रश्न उत्तर शैली में सरल तरीके से बातचीत करते हुए राजनीति के दुरूह सवालों का जवाब देने की कोशिश की है। पुस्तक के पृष्ठ 157- 59 में दुखराम नाम के पात्र को समझाते हुए राहुल जी तब के अखबार और आज के मीडिया की वास्तविकता को किस तरह उजागर करते हैं आप भी पढ़िए। दशकों के बाद भी लेखक के लिखे की प्रासंगिकता उसकी दूरदृष्टि को तो साबित करती ही है लेकिन ये प्रमाण भी है कि एक समाज के तौर पर हमने खुद को तनिक भी बेहतर नहीं किया।

प्रस्तुति – भूपेश पन्त

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