कुछ तुम फ़िक़रे कसो
कुछ मैं भी वाह वाह करूँ
धुआँ मेरे घर का नहीं
तो मैं क्यों आह आह करूँ।
ज़मीर हूँ मैं ज़िंदा तेरा
तू मेरा शरीर है जाने मन
तेरी वफ़ादारी के लिये
मैं क्योंकर आत्मदाह करूँ।
जो बन बैठा है रहनुमा
तूने ख़ुदग़र्ज़ी से उसे चुना
तेरे भले की हर दुआ
रक़ीब से या अल्लाह करूँ।
चुप रहने की आज़ादी
या बोलने पर लगा पहरा
तुझे किसकी चाहत है
किससे मैं ये सलाह करूँ।
मुझे मिल गया है मेरे
क़ातिल का पता लेकिन
जम्हूरियत हूँ भला कैसे
मैं लोगों को आगाह करूँ।
दरवाजे बंद हैं सारे
कहीं कोई आवाज़ नहीं
सोयों को जगाने का
भला कैसे ये गुनाह करूँ।
सिर चढ़ के लो बोल रहे
हिटलर, नाथू और चंगेज़
कैसे किसी की कोख से
भगत, गाँधी की चाह करूँ।
इंसानी बस्ती में मिलके
टहल रहे हैं चतुर सियार
जाने पहचाने हैं फ़िर भी
वहशी से क्यों निबाह करूँ।
संगीनों के साये में जब
इबादत करना हो मुश्किल
‘प्रेम’ के ‘चंद’ अक्षर पढ़
फ़िर सैर ए ईदगाह करूँ।
उसके हाथों में चप्पू है
और आस्तीनों में हैं ख़ंजर
मगर कोई चारा नहीं कि
मैं उसको ही मल्लाह करूँ।
आईने के सामने यूँ ही
बैठा हूँ बन के सफ़ेदपोश
सोच रहा हूँ उसूलों का
क़त्ल कब से सरेराह करूँ।
हर शख़्स ख़ुश है यहाँ
पर अजीब सा मंज़र है ये
कोड़े सबको पड़ते हैं
जिस ओर भी निगाह करूँ।
देख के बर्बादी उसकी
सुकून पहुँचा है सीने को
अब मैं अपनी सह लूंगा
मजाल है कि कराह करूँ।
वक़्त ने सिखा दिया है
हुकूमत करने का गुर उसे
फ़क़ीर की चाहत है
उसको मैं बादशाह करूँ।
@भूपेश पन्त